Krushna Coffee - 1 in Hindi Drama by Raj Phulware books and stories PDF | कृष्णा कैफ़े - भाग 1

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कृष्णा कैफ़े - भाग 1


🌼 कृष्णा कैफ़े – भाग 1 🌼

(एक प्रेम कथा, जो आस्था और इंसानियत के संगम से जन्मी)


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दृश्य 1 — कॉलेज की सुबह

सेंट पीटर्स यूनिवर्सिटी, मुंबई।
सुबह का वक्त। कैंपस में पेड़ों के बीच से आती धूप, चिड़ियों की चहचहाहट और स्टूडेंट्स की हलचल।

लॉन के किनारे एक लड़की बैठी थी — किताबों के बीच खोई हुई।
उसका नाम था सावित्री नायर।

उसके माथे पर हल्का-सा तिलक, आँखों में गहराई और चेहरे पर एक अद्भुत शांति थी।
क्लास की सबसे होशियार और सबसे संकोची छात्रा।

पास में एक लड़का क्रिकेट बैट लिए हँसते हुए अपने दोस्तों के साथ दौड़ रहा था।
वो था — मार्क्स एंडरसन।
नीली आँखें, आत्मविश्वास से भरा चेहरा और दिल में बेमिसाल अपनापन।


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(क्रिकेट बॉल गलती से उड़कर सावित्री की किताब पर गिरती है)

सावित्री (घबराकर):
"अरे! यह क्या कर रहे हो तुम लोग? किताब पर लगी बॉल से पन्ना फट गया!"

मार्क्स (भागकर आता है, सांस फूलती हुई):
"ओह! आई एम सो सॉरी… मेरी गलती थी। वो बॉल थोड़ा ज़्यादा स्पिन ले गई।"

सावित्री (गुस्से और हैरानी के बीच):
"थोड़ा ज़्यादा स्पिन? यह क्रिकेट ग्राउंड नहीं है, कॉलेज का लॉन है। पढ़ाई करने आया हूँ, खेल का मैदान नहीं।"

मार्क्स (मुस्कराते हुए, आँखों में शरारत):
"पढ़ाई भी ज़रूरी है, लेकिन ज़िंदगी में कभी-कभी ‘स्पिन’ भी ज़रूरी होता है… वरना हर चीज़ सीधी-सपाट हो जाएगी।"

सावित्री (किताब समेटते हुए):
"तुम्हारी बातें सुनकर तो लगता है, जैसे लाइफ फिलॉसफी की किताब लिख रहे हो!"

मार्क्स (हँसते हुए):
"नहीं, बस कोशिश कर रहा हूँ कि कोई मुझसे नाराज़ न रहे। चलो, तुम्हें नई किताब दिला देता हूँ।"

सावित्री (थोड़ी नरम होकर):
"ज़रूरत नहीं। किताबें तो फिर से मिल जाती हैं, लेकिन वक्त नहीं।"

मार्क्स उसकी बात सुनकर ठहर जाता है।
उसे पहली बार एहसास होता है कि यह लड़की बाकी सब से अलग है।


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दृश्य 2 — लाइब्रेरी में पहली बातचीत

कुछ दिन बाद।
लाइब्रेरी में हल्की सी ख़ामोशी।
सावित्री को पता चलता है कि उसी टेबल पर बैठने वाला लड़का वही है — मार्क्स।

सावित्री (धीरे से):
"तुम यहाँ भी आ गए?"

मार्क्स (मुस्कराते हुए):
"हाँ, पता चला कि यहाँ बॉल फेंकने की मनाही नहीं है… तो सोचा, यहाँ पढ़ाई कर लेते हैं।"

सावित्री (थोड़ी मुस्कान रोकते हुए):
"पढ़ाई? तुम्हें देखकर तो लगता है तुम किसी ड्रामा क्लब के एक्टर हो।"

मार्क्स (गंभीर बनकर):
"गलतफहमी है। मैं ड्रामा नहीं करता… बस दिल से बात करता हूँ।"

सावित्री (हैरान होकर):
"दिल से बात? तुम मुझे जानते भी नहीं।"

मार्क्स (धीरे से):
"जानने के लिए नाम, धर्म या पता नहीं चाहिए… कभी-कभी किसी की आंखें ही सब बता देती हैं।"

सावित्री उसके शब्दों में खो जाती है।
वो पहली बार किसी गैर-हिंदू लड़के से इस तरह प्रभावित हुई थी।


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दृश्य 3 — दोस्ती की शुरुआत

कॉलेज कैफेटेरिया में भीड़ थी।
मार्क्स ट्रे में कॉफी लेकर आया, सावित्री अकेली बैठी थी।

मार्क्स (हल्की हँसी के साथ):
"आज तुम्हारी किताबें कहाँ हैं? या फिर उन्होंने तुम्हें छुट्टी दे दी?"

सावित्री (हँसते हुए):
"आज मेरा माइक्रोबायोलॉजी टेस्ट था, सोचा थोड़ा ब्रेक ले लूँ।"

मार्क्स:
"तो चलो, मैं तुम्हें अपनी स्पेशल कॉफी ट्रीट देता हूँ।"

सावित्री:
"कॉफी? मुझे तो सिर्फ़ चाय पसंद है।"

मार्क्स (शरारती अंदाज़ में):
"तो फिर आज की कॉफी, तुम्हारे चाय जैसे दिल के नाम!"

दोनों हँसते हैं।
पहली बार सावित्री ने महसूस किया कि किसी के साथ बैठना इतना सहज भी हो सकता है।


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दृश्य 4 — पहचान का सवाल

एक शाम दोनों कॉलेज से लौट रहे थे।
मार्क्स ने पूछा —
"सावित्री, तुम्हारा भगवान कौन है?"

सावित्री:
"श्रीकृष्ण। मेरे जीवन के मार्गदर्शक। वो जो प्रेम सिखाते हैं, वो जो सत्य और करुणा के प्रतीक हैं।"

मार्क्स (धीरे):
"कृष्ण… सुंदर नाम है। मैं चर्च जाता हूँ, प्रेयर करता हूँ। पर जब तुम कृष्ण का ज़िक्र करती हो, तो मुझे भी लगता है कि वो हमारे ईश्वर जैसे ही हैं।"

सावित्री (मुस्कुराते हुए):
"ईश्वर कोई नहीं बदलता, बस रास्ते अलग होते हैं।"

मार्क्स उसकी बातों में खो गया।
वो जान गया — इस लड़की के भीतर सिर्फ़ आस्था नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई है।


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दृश्य 5 — प्यार का इज़हार

कॉलेज का आख़िरी दिन।
फेयरवेल पार्टी में संगीत चल रहा था।
मार्क्स ने सावित्री को भीड़ में ढूंढा और उसके सामने जाकर बोला —

मार्क्स:
"सावित्री, आज कॉलेज खत्म हो रहा है।
लेकिन मैं चाहता हूँ कि हमारी कहानी यहीं खत्म न हो।
मैं तुम्हें पसंद करता हूँ… बहुत ज़्यादा।"

सावित्री (सन्न रहकर):
"मार्क्स, तुम जानते हो ना… मैं हिंदू हूँ, और तुम्हारा परिवार…"

मार्क्स (बीच में बोलते हुए):
"हाँ, जानता हूँ। लेकिन अगर दो दिल एक-दूसरे को समझते हैं,
तो धर्म दीवार नहीं, पुल बन जाता है।"

सावित्री (आँखों में आँसू लिए):
"मुझे सोचने दो…"

मार्क्स (धीरे):
"मैं इंतज़ार करूँगा, कृष्ण के भक्त की तरह…
क्योंकि सच्चा प्यार भी भक्ति जैसा होता है — बिना शर्त के।"


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(हल्का संगीत — “राधे कृष्णा…” पृष्ठभूमि में)

उस दिन सावित्री के दिल में पहली बार डर नहीं, बल्कि सुकून था।
वो जान चुकी थी — उसके जीवन में कोई आया है जो सिर्फ़ इंसानियत जानता है, धर्म नहीं।


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दृश्य 6 — नाम का अर्थ

कुछ महीनों बाद।
दोनों ने परिवारों की असहमति के बावजूद कोर्ट मैरिज कर ली।
सावित्री ने शादी के बाद अपना नाम बदल लिया — एला एंडरसन।

लेकिन जब मार्क्स ने उसके सामने नए नेमप्लेट पर लिखा देखा —

> "Mr. & Mrs. Mark Anderson"
वो ठहर गया।



मार्क्स (धीरे से):
"एला… तुम्हें अपना नाम बदलने की ज़रूरत नहीं थी।
मैं तुम्हें सावित्री के रूप में ही प्यार करता हूँ।"

एला (मुस्कुराकर):
"सावित्री तो बस नाम था…
अब मैं तुम्हारे साथ हूँ, तो हर नाम पवित्र है।
पर याद रखना, मेरा कृष्ण मेरे दिल में हमेशा रहेंगे।"

मार्क्स (हँसते हुए):
"और तुम्हारे कृष्ण के नाम पर ही मैं एक दिन कैफ़े खोलूँगा…
नाम रखूँगा — कृष्णा कैफ़े!"

एला (हैरानी से):
"सच में?"

मार्क्स (स्नेह से):
"हाँ, क्योंकि कृष्ण ने ही तुम्हें मेरे जीवन में भेजा है।"

दोनों हँसते हैं, और पीछे से मंदिर की घंटी बजती है।


(प्रेम का विस्तार, परिवार का जन्म और किस्मत की नई दिशा)

> इस भाग में एला (पूर्व सावित्री) और मार्क्स के वैवाहिक जीवन,
“कृष्णा कैफ़े” की स्थापना,
दो बेटियों जैसी और ग्रेसी का जन्म,
डेविड और उसके बेटे पीटर की एंट्री,
और परिवार के भीतर की छोटी-छोटी खुशियाँ दिखाई जाएँगी।




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दृश्य 1 — नई शुरुआत

(सुबह का दृश्य – छोटा सा घर, खिड़की से आती धूप, पक्षियों की आवाज़ें)

एला (खिड़की खोलते हुए):
“देखो मार्क्स, कैसी प्यारी सुबह है… लगता है कृष्ण खुद आशीर्वाद दे रहे हों।”

मार्क्स (कॉफी मग लेकर):
“और शायद इस कॉफी में वही स्वाद है — तुम्हारे कृष्ण का आशीर्वाद।”

एला (मुस्कराते हुए):
“तुम भी न… हर चीज़ को मज़ाक में कह देते हो।”

मार्क्स:
“अरे नहीं, सच में कह रहा हूँ। जिस घर में तुम हो, वहाँ भक्ति भी है और प्रेम भी।”

(दोनों के बीच हल्की हँसी, बैकग्राउंड में बांसुरी की मधुर धुन)


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दृश्य 2 — कैफ़े का सपना

कुछ महीनों बाद…

एला:
“मार्क्स, याद है तुमने कहा था — कृष्णा कैफ़े खोलने की बात?”

मार्क्स (मुस्कुराते हुए):
“हाँ, वही सपना तो अब तक दिल में पल रहा है।”

एला:
“तो फिर खोलते क्यों नहीं?
कॉलेज के दिनों में तुम कहा करते थे — ‘ज़िंदगी कॉफी जैसी है, जितनी मीठी डालो उतनी बन जाती है।’”

मार्क्स (हँसते हुए):
“ठीक है… तो फिर ‘कृष्णा कैफ़े’ खुलेगा — तुम्हारे नाम पर, तुम्हारे विश्वास पर।”

एला:
“और उसके कोने में एक छोटी-सी मूर्ति होगी — मेरे कृष्ण की।”

मार्क्स:
“वो तो रहेगा ही। नाम ही ‘कृष्णा कैफ़े’ है — जो हमारे धर्मों का नहीं, बल्कि हमारे प्रेम का प्रतीक होगा।”

(दोनों साथ बैठकर कागज़ पर डिज़ाइन बनाने लगते हैं, दीवार पर लिखा दिखाई देता है — “कृष्णा कैफ़े — Where Faith Meets Coffee.”)


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दृश्य 3 — “कृष्णा कैफ़े” का उद्घाटन ☕

भीड़भाड़ वाली सड़क, छोटे लकड़ी के दरवाज़े वाला प्यारा-सा कैफ़े।
दरवाज़े पर फूलों की सजावट, और अंदर से आती कॉफी की खुशबू।

एला (उत्साहित होकर):
“मार्क्स, सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा सोचा था!
देखो न, कृष्ण की मूर्ति के सामने दीया भी जल रहा है।”

मार्क्स (भावुक होकर):
“यह कैफ़े सिर्फ़ एक दुकान नहीं है… यह हमारी कहानी है, एला।
एक हिंदू लड़की और एक क्रिश्चियन लड़के का प्रेम जो अब हर कप कॉफी में जिंदा रहेगा।”

(भीड़ ताली बजाती है। पहला कप एला खुद कृष्ण की मूर्ति के आगे रखती है।)

एला:
“जय श्रीकृष्ण… अब शुरू करते हैं।”


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दृश्य 4 — खुशी के दो फूल 🌸🌸

समय धीरे-धीरे बीतता है।
घर के आँगन में हँसी की गूँज गूँजती है।

एला की गोद में एक नन्ही बच्ची है — जैसी।
कुछ साल नहीं, बस कुछ मिनटों बाद ही दूसरी बच्ची की रोने की आवाज़ आती है — ग्रेस।
दोनों एक साथ पैदा हुईं — जुड़वाँ बहनें, सब उन्हें प्यार से कहते हैं — “बैटरी ट्विन्स” ⚡⚡

मार्क्स (दोनों को गोद में उठाते हुए, मुस्कुराकर):
“मेरी दो परी, एक कृष्ण की जैसी… और दूसरी मेरी ग्रेस!
इन दोनों के बिना मेरा घर अधूरा था।”

एला (थोड़ी हँसी के साथ, स्नेहभरी नज़र से):
“तुम्हारे दिल में हमेशा कवि बसता है, मार्क्स।”

मार्क्स (जैसी और ग्रेसी के माथे को चूमते हुए):
“और तुम्हारे दिल में भगवान… तभी तो इस घर में स्वर्ग उतर आया है।”

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दृश्य 5 — डेविड और पीटर की एंट्री

एक दिन “कृष्णा कैफ़े” में पुराना दोस्त डेविड आता है।
लंबा, थोड़ा गंभीर पर हँसमुख स्वभाव का आदमी।
साथ में उसका छोटा बेटा — पीटर।

डेविड (दरवाज़े पर आकर):
“अरे, यह तो वही मार्क्स है!
कभी चर्च में प्रार्थना करने वाला आज कॉफी बना रहा है?”

मार्क्स (गले लगते हुए):
“डेविड! तुम यहाँ? कितने साल बाद!”

एला (स्नेह से):
“अंदर आइए, ये कैफ़े हमारा घर है। आपका स्वागत है।”

डेविड (चारों ओर देखकर):
“‘कृष्णा कैफ़े’? दिलचस्प नाम है… तुम तो अब पक्का आधे हिंदू बन गए हो।”

मार्क्स (मुस्कुराकर):
“नहीं दोस्त, मैं अब पूरा इंसान बन गया हूँ।”

डेविड (हँसते हुए):
“और कॉफी का स्वाद?”

एला:
“कृष्ण जैसा मधुर।”

(सभी हँसते हैं, पीटर बच्चों जैसी और ग्रेसी के साथ खेलने लगता है।)


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दृश्य 6 — परिवार की शामें

हर शाम “कृष्णा कैफ़े” में हँसी और संगीत गूँजता।
ग्राहक कहते,
“यहाँ की कॉफी में कुछ तो खास है — जैसे किसी ने प्रेम मिला दिया हो।”

मार्क्स (कॉफी सर्व करते हुए):
“यह कैफ़े सिर्फ़ पेय नहीं, प्रार्थना है।”

एला (हँसते हुए):
“और हर कप में थोड़ा-सा कृष्ण, थोड़ा-सा प्रेम।”

जैसी (काउंटर पर बैठी):
“मम्मी, मैं भी एक दिन कॉफी बनाऊँगी।”

ग्रेसी (हँसते हुए):
“और मैं पैसे लूँगी!”

(सब ज़ोर से हँसते हैं।)

डेविड चुपचाप यह दृश्य देखता है।
वो सोचता है — “काश, हर घर में इतना प्यार होता।”


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दृश्य 7 — समय की चाल

साल गुजरते हैं।
“कृष्णा कैफ़े” अब इलाके की पहचान बन चुका था।
लोग कहते, “यह कैफ़े नहीं, आशीर्वाद है।”

एक सुबह एला अपनी माँ का फोन उठाती है।

एला (फोन पर):
“माँ, कैसी हैं आप?”

(माँ की कमजोर आवाज़)
“बेटी… अब सांसें साथ नहीं देतीं।
एक बार देखना चाहती हूँ तुम्हें…”

एला (घबराकर):
“माँ, आप ठीक हैं न? मैं आ रही हूँ।”

मार्क्स:
“क्या हुआ, एला?”

एला:
“माँ की तबीयत बहुत खराब है… मुझे जाना होगा।”

मार्क्स:
“चलो, मैं छोड़ देता हूँ कार से।”

एला:
“लेकिन कैफ़े?”

मार्क्स:
“कृष्णा कैफ़े हमारा सपना है… लेकिन माँ की सेवा धर्म है। चलो।”


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दृश्य 8 — डेविड का वादा

(कैफ़े का दरवाज़ा बंद करते हुए मार्क्स की आवाज़)

मार्क्स:
“डेविड, ज़रा बच्चों का ख्याल रखना।
हम शाम तक लौट आएँगे।”

डेविड:
“चिंता मत करो, जैसी और ग्रेसी मेरी जिम्मेदारी।”

मार्क्स (मुस्कुराकर):
“धन्यवाद दोस्त… कृष्ण तुम्हें आशीर्वाद दें।”

(मार्क्स और एला कार में बैठकर निकल जाते हैं।
बाहर बारिश शुरू हो चुकी है।)


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दृश्य 9 — अनहोनी की शुरुआत 🌧️

(रात, सड़क पर तेज़ बारिश, गाड़ी की हेडलाइट्स)

एला:
“सड़क बहुत फिसलन भरी है, धीरे चलो।”

मार्क्स:
“हाँ, बस दो मोड़ और…”

(अचानक सामने ट्रक आता है, ब्रेक की आवाज़, ज़ोरदार टक्कर…
और फिर सिर्फ़ बारिश का शोर।)


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(सन्नाटा)
कृष्णा कैफ़े की लाइट अपने आप बुझ जाती है।
दीवार पर टंगा बोर्ड —

> “कृष्णा कैफ़े – Where Faith Meets Coffee.”
अब आधा भीगा हुआ है।




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दृश्य 10 — दादी का इंकार

(शाम ढल रही है। आसमान में नारंगी उजाला है।
एक पुराना मकान, जिसके बाहर तुलसी का चौरा और कृष्ण की छोटी मूर्ति रखी है।
दरवाज़े पर “सावित्री निवास” लिखा है।)

डेविड अपनी कार से उतरता है।
साथ में दो छोटी बच्चियाँ — जैसी और ग्रेसी।
दोनों के चेहरों पर मासूम डर, हाथों में कसकर पकड़ी गुड़िया।

डेविड (धीरे से):
“बेटा, अब हम नानी के घर जा रहे हैं।
वो तुम्हें बहुत प्यार करेंगी… तुम्हारी देखभाल करेंगी।”

ग्रेसी (धीरे से):
“मम्मी भी यहीं आई थीं, न?”

डेविड (गहरी सांस लेते हुए):
“हाँ… वही आख़िरी बार।”

(वे दरवाज़े तक पहुँचते हैं। डेविड दस्तक देता है।)

(अंदर से एक महिला की कमजोर आवाज़ आती है):
“कौन है?”

दरवाज़ा खुलता है।
सावित्री की माँ व्हीलचेयर पर बैठी हैं — चेहरा पीला, आँखों में थकान और गुस्सा दोनों।

डेविड (नम्रता से):
“आंटी… मैं डेविड हूँ। मार्क्स का दोस्त। ये… आपकी नातिनें हैं।”

(जैसी और ग्रेसी डरते हुए आगे आती हैं। दोनों हाथ जोड़ती हैं।)

जैसी (धीरे से):
“नानी… नमस्ते।”

सावित्री की माँ (चौंकती हैं, फिर चेहरा सख्त कर लेती हैं):
“नानी? किसने कहा इन्हें यहाँ लाने को?”

डेविड (सहजता बनाए रखते हुए):
“आंटी, सावित्री अब नहीं रही… मार्क्स भी नहीं।
अब इनके पास कोई नहीं है। मैं सोच रहा था… आप ही इनकी ममता बन जाएँ।”

सावित्री की माँ (चेहरा फेरते हुए):
“ममता? ममता तो उसी दिन मर गई जब मेरी बेटी मरी।”

डेविड (हैरान):
“क्या कह रही हैं आप?”

सावित्री की माँ (कंपित स्वर में):
“तुम नहीं जानते, डेविड। उस दिन एला — मेरी सावित्री — मुझसे मिलने आ रही थी।
मैं बीमार थी… उसने कहा था कि ‘माँ, मैं आ रही हूँ।’
लेकिन असल में उसे मजबूर किया था इन दोनों ने।”

जैसी (डरते हुए):
“नानी… हमने तो बस कहा था — मम्मी, नानी को देखने चलो…”

सावित्री की माँ (कड़क स्वर में):
“और उसी सफ़र में मेरी बेटी चली गई!
वो कार, वो हादसा… सब तुम्हारी वजह से हुआ!
तुम दोनों ने मेरी बेटी छीन ली मुझसे!”

(दोनों बच्चियाँ रोने लगती हैं। डेविड आगे बढ़ता है, गुस्


---

दृश्य 11 — कृष्णा कैफ़े का मौन

(कुछ दिनों बाद)
“कृष्णा कैफ़े” का बोर्ड अब धूल से ढक गया है।
दरवाज़े पर ताला लटक रहा है।

डेविड हर रोज़ वहाँ आता है,
दीपक जलाता है, और ताला देखता है।

डेविड (धीरे से):
“यह कैफ़े अब नहीं खुलेगा…
क्योंकि इसे चलाने वाले दो दिल अब नहीं रहे।
पर मैं इसे बंद नहीं करूंगा — बस शांत रहने दूँगा,
जैसे किसी की याद को रखा जाता है।”

(दीवार के कोने में कृष्ण की मूर्ति अब भी चमक रही है,
और हवा में कॉफी की हल्की-सी गंध बची है।)